जब भी श्री चित्रगुप्तजी महाराज की पूजा करते हैं तो उनकी आरती गाते हैं। उस आरती में रचयिता के नाम वाली ये पंक्ति आती है ' फ़तहलाल माणक भंडारी अजमेरी गाता'। मैं आज आपको इन्हीं फ़तहलाल जी के विषय में जानकारी देने वाला हूँ।
मुंशी फ़तहलाल सीमलोत, कायस्थ समाज की एक जानी मानी हस्ती थे। वे हिन्दी, संस्कृत, उर्दू-फारसी तथा अंग्रेज़ी के विद्वान थे। संस्कृत के ग्रंथों के अध्ययन के बाद ही उन्होंने यमद्वितीया कथा जैसी पुस्तक की रचना की थी। श्री चित्रगुप्त महाराज की कथा के साथ उपरोक्त आरती उसी पुस्तक का भाग है जिसमें इनके अलावा माताजी की कुछ स्तुतियाँ भी हैंं। एक स्तुति 'राख चामुंडा लाज म्हारी' में अजमेर के चामुंडा देवी मंदिर के पूरे इतिहास का वर्णन है।
मुंशीजी एक अच्छे चित्रकार भी थे। श्री चित्रगुप्तजी महाराज का बारह पुत्रोंं के साथ वाला प्रसिद्ध पुराना रंगीन चित्र (संलग्न किया जा रहा है) आपके ही द्वारा बनाया गया था। तत्कालीन माथुर ट्रेडिंग कंपनी द्वारा प्रकाशित यह चित्र संभवतः चित्रगुप्तजी का पहला प्रकाशित चित्र था।
माथुर ट्रेडिंग कंपनी बंद होने के बाद इस चित्र के प्रकाशन व वितरण का कार्य हमारे परिवार ने किया था। इस चित्र की माँग देश के अनेक स्थानों से आती थी। पटना, बिहार से इस चित्र की माँग सैंकड़ों की तादाद में होती थी। चित्रकारी का यह गुण फ़तहलालजी के पुत्र स्व. लक्ष्मण स्वरूपजी में भी था और अब पौत्रगण द्वारका व ज्वाला सीमलोत में भी है।
मुंशी फ़तहलालजी मेरे नाना थे। मेरी माताजी स्व. गणेश कोर (बन्ना बाई) उनकी पाँचवीं संतान थीं। नानाजी के घर में उस समय Hindustan Times, The Illustrated Weekly of India, Filmfare, साप्ताहिक धर्मयुग, बाल-सखा आदि अनेक पत्र-पत्रिकाएं नियमित रूप से लिए जाते थे। वह मेरे अक्षर-ग्यान की उम्र थी। एक दिन मैंने उनके सामने अक्षर जोड़-जोड़ कर अंग्रेज़ी के अख़बार की हैडलाइन पढ़ ली तो वे बहुत ख़ुश हुए और नानीजी को बुला कर यह बात बताई। मुझ में साहित्य और कलाओं की जो कुछ समझ है वह मुझे मेरे नाना साहब से ही मिली है।
नाना साहब ने 1898 से 1932 तक Mayo College के Office में काम किया था। मेरी माताजी बताती थीं कि नानाजी कायस्थ मोहल्ले से Mayo College बग्घी (घोड़ा गाड़ी) से जाते-आते थे। 1932 में जब वे Office Superintendent के पद पर थे तब तत्कालीन अंग्रेज़ Principal Col. Stow से वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने सेवा से अवकाश ले लिया था।
नानाजी विनोद-प्रिय भी थे। मुझे याद है वे बात-बात पर मेरी नानीजी की चुटकियां लेते और मुस्कुराते रहते थे। इस संबंध में एक और विशेष बात मुझे याद है। होली के अवसर पर धुलंडी की शाम को वे सफ़ेद अचकन पहने, गुलाबी साफ़ा बाँधे और हाथ में छड़ी लिए इन्दर की पोल मेंं आते थे। फिर हमारे घर के नीचे खड़े होकर बड़ी अदाओं के साथ, हँस-हँस कर मेरी दादीजी के नाम एक 'गाली' गा कर सुनाते थे। और नमस्कार करके लौट जाते थे।
कायस्थ समाज मुंशी फ़तहलालजी जैसे महान सपूत की स्मृति उनके द्वारा रचित श्री चित्रगुप्तजी महाराज की कथा व आरती में अक्षुण्ण बनाए रखेगा इसी विश्वास के साथ उनकी पुण्यात्मा को कोटिशः नमन।
साभार: श्याम नारायण माथुर