‘ओ दुनिया के रखवाले.......’ नौशाद

 



संगीतकार नौशाद की पुण्यतिथि (5 मई) पर विशेष

25 दिसंबर 1919 को नवाबों के शहर लखनऊ के एक परिवार में एक ऐसे बालक का जन्म हुआ जिसके साथ इस धरती पर ईश्वरीय ध्वनियों ने आकार लेना शुरू कर दिया था।  नौशाद जिस घर में जन्में वहां गीत-संगीत को कोई नहीं पूछता था बल्कि यह एक खराब बात थी।  किसे पता था कि इस बालक की उँगलियों के साथ-साथ उसके हृदय में से भी एक तरंग सी उठेगी जो सारे संसार को आध्यात्मिकता और भक्ति के सागर में डूबो देगी।  

एक ऐसा शास्त्रीय संगीत उनके हाथों में बज उठेगा जिससे यह दुनिया एक ऐसे तिलिस्म के साथ आ खड़ी होगी जहां आत्मा और परमात्मा के मिलन का सूत्र मिल जाता है।  याद कीजिये वो भजन जिसकी आवाज़ में सभी सुनने वाले एक अजीब सी शांति की दुनिया में विचरण करने लगे।  ‘ओ दुनिया के रखवाले.......’ में एक ऐसी व्यथा उभर कर आई कि दरिया का पानी ठहर गया, मंदिरों के दिये अपने आप जलने लगे, भक्ति स्थलों की घंटियाँ चारों दिशाओं में गूंजने लगी। 

 यही सब-कुछ तो आवश्यक होता है जब किसी व्यक्ति को अपना दुख बहुत भारी लगता है।  जब चारों तरफ गम की आँधियाँ चल रही होती हैं तो वहां पर एक आशा की किरण दिखाई देती है और सकारात्मक सोच उत्पन्न होती है।  कहते हैं न कि अपना दुख किसी से कह देने से दुखी का मन हलका हो जाता है। 

 ‘बैजू बावरा’ एक ऐसा ही गायक होता है जो पूरे संसार को बताता है कि संगीत में वो ताकत है जो हमेशा आपको हिम्मत देती है और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बलशाली हो जाता है। ‘इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.......’ (अमर) में ईश्वर की ताकत को सर्वोपरि माना गया और इस गीत ने प्रत्येक संगीत प्रेमी के दिल में अपना घर बना लिया।  ‘मन तडपत हरी दर्शन को आज.......’ (बैजू बावरा) जैसे गीत में दार्शनिकता अपनी चरम सीमा पर दिखाई देती है और पूरा संसार हरी दर्शन को व्याकुल हो जाता है। 


नौशाद के वाद्य-यंत्रों से भारतीय संगीत की वो ध्वनियाँ निकली जिसने इनसान तो इनसान, पक्षियों, पशुओं और यहाँ तक कि सागर की गहराई में बसने वाले जीव-जंतुओं को संगीत के प्रभाव में जकड़ लिया।  झरने से गिरते पानी की धाराएँ, कलकल करती नदियां, घने मेघ से टप-टप बरसती बूंदे, पेड़ पर लगे पत्तों की सरसराहट, पहाड़ों से टकराकर लौटती संतूर, सितार और मृदंग की आवाज़ें और हवाओं में बिखरता बचपन और निखरता यौवन, सभी अवस्थाओं का बेहद खूबसूरत संगीत नौशाद साहब के पास था।  उनके संगीत की धुन पर ‘मधुबन में राधिका.......’ (कोहिनूर) में मुरलिया ने नृत्य किया।  उनकी स्वर लहरियों पर पनघट पर खड़ी सखियों को राधा ने ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे.......(मुग़ल-ए-आजम), मोहन की छेड़छाड़ के बारे में बताया। 

  नौशाद के सितार पर बजती उनकी उँगलियों ने, उनके तबले पर लहराती हथेली ने, उनके हारमोनियम से निकलती सुरीली हवाओं ने हमें ‘बचपन के दिन भुला न देना.......’ (दीदार), ‘ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे साजना.......’ (गंगा जमुना), ‘गाये जा गीत मिलन के.......’ (मेला), ‘पंछी बन में.......’ (बाबुल), ‘अफ़साना लिख रही हूँ.......’ (दर्द), ‘दूर कोई गाये धुन ये सुनाये.......’ (बैजू बावरा), ‘मिलते ही आँखें दिल हुआ.......’ (बाबुल), ‘दिल में छुपा के प्यार का.......’ (आन), ‘तू कहे अगर जीवन भर.......’ (अंदाज़), ‘हमारे दिल से न जाना.......’ (उड़न खटोला) जैसे गीतों के संगीत से इतना प्रेमरस टपकाया कि नदियों में अविरल प्रेमधारा बहने लगी, प्रेम की किश्तियाँ चलने लगी, प्रेम के चप्पू नाव को खेने लगे तब ही तो, ‘तू गंगा कि मौज मैं जमना का धारा.......’ (बैजू बावरा) जैसा प्रेम गीत बना जिसे न तो कोई पहले विस्मृत कर सका और न आज भूला हुआ है और न ही कोई आगे भूलेगा।

उनके संगीत से सजी फ़िल्मों के लिए दो कलाकारों ने भरपूर गीत गाए जिसमें एक कोकिलाकंठी लता मंगेशकर थी और दूसरे गायक वो थे जिनकी आवाज़ ने हर शख़्स के दिल तक अपनी जगह बना ली थे और उनका नाम था मोहम्मद रफ़ी।  यह वही नौशाद थे जिन्होंने मोहम्मद रफ़ी को पहला अवसर ‘पहले आप’ (1944) में दिया।  इस फ़िल्म में ‘हिंदुस्तान के हम.......’ और ‘तुम दिल्ली में मैं आगरे में.......’  दो गीत उनके एकल स्वर में थे और एक गीत उन्होंने श्याम के साथ गाया था, ‘एक बार उन्हें मिला दे.......।’  इन गीतों को गाकर मोहम्मद रफ़ी बहुत खुश थे और नौशाद को भी मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ बेहद पसंद आई।  एक और जहां भक्ति रस में डूबे अप्रतिम गीत उनके संगीत से जुड़े हुए थे तो वहीं दूसरी ओर दर्द का अथाह दरिया बहता था तब ही तो उनके गीतों में बसे दर्द को सुनकर हर किसी की आँखों में आँसू बहने…साभार मुकेश पोपली  की व्हाटसअप वॅाल से